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शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

गुरु बिन ज्ञान न होई।



 बोलचाल की आम  भाषा में शिक्षा का अर्थ 'सीखना' और शिक्षक का अर्थ 'सिखाने वाला' माना जाता है। शिक्षक (गुरु) क्या देता है? क्या सिखाता  है? शिक्षक ज्ञान देता है। वह  मनुष्य की जीवन रुपी  नैया को सुचारू रूप से चलाने और उसे सुगमता से  पार लगाने के अच्छे-अच्छे  गुण सिखाता है।गुरु के बिना जीवन का अर्थ नहीं। संसार में गुरु ही कल्याणकारी मार्ग की ओर अग्रसर करते हैं। गुरु प्रकाश स्वरुप हैं। वे   मनुष्य को अंधकार से बाहर निकालते हैं।  जिस तरह पानी के बिना नदी का  कोई महत्व नहीं होता।  वैसे  ही  गुरु के बिना जीवन  अर्थहीन हो जाता है। 

संसार में शक्ति की पूजा होती है। शक्ति कहाँ से और कैसे प्राप्त होगी? इससे सम्बंधित अंग्रेजी  में एक कहावत है- " Knowledge is power"  ज्ञान ही शक्ति है। अर्थात  शक्ति का  स्त्रोत ज्ञान है।ज्ञान कहाँ से प्राप्त  होगा ?  ज्ञान का स्त्रोत गुरु है -"गुरु बिन ज्ञान न होई।" गुरु मनुष्य के अन्दर  ज्ञान भरता है, उस ज्ञान रुपी पंख के सहारे  मनुष्य  सफलता के शिखर  को  चूमने  में सफल होता है।  गुरु शिष्यों की   त्रुटियों को दूर करने के  उपाय करता है।  जैसे कुम्हार घड़े को सुन्दर बनाने के लिए गढ़ गढ़ कर उसके खोट निकलता है ,ठीक  उसी प्रकार गुरु शिष्यों के जीवन को सँवारने  के लिए उन्हें   घुमा-फिरा कर तरह तरह से गढ़ता है, उनके खोट निकलता है।  इस सन्दर्भ में गुरु के महत्त्व को वर्णित करते हुए किसी कवि ने ठीक ही लिखा है   -

             " गुरु कुम्हार शिष कुम्भ है,गढ़ि  गढ़ि काढ़े खोट। 
                   अंतर हाथ पसारि  के,  बाहर मारे चोट। "

आध्यात्मिक जीवन में  वर्णन आता है कि यदि कोई परमात्मा को प्राप्त करना चाहता है, तो  उसे इधर-उधर भटकने की आवश्यकता नहीं  है।  उसे गुरु की शरण में जाना चाहिए।  परमात्मा को प्राप्त करने  का रास्ता  केवल  गुरु ही जनता  है। गुरु ही भगवान से भेंट करा सकता है, उनके दर्शन करा सकता है। मात्र गुरु  ही भगवान की पहचान करा सकता है।  इसलिए प्रथम वंदना गुरु की होनी चाहिए। इस सन्दर्भ में  कबीर साहेब कहते है -
                  "गुरु गोविन्द दोउ खड़े , काके लागूँ  पाँय !
               बलिहारी गुरु आपने , जिन गोविन्द दियो  दिखाय !"

भावार्थ : "गुरु और गोविन्द दोनों एक साथ खड़े है , पहले किसके श्री चरणों में प्रणाम करू ? हे गुरुदेव ! आप धन्य हैं। आपकी कृपा से ही  मैं श्रीगोविन्द (भगवान ) से मिल सका हूँ । इसलिए मैं आपके ही श्री चरणों में पहले प्रणाम करता हूँ।" गुरु की महिमा का वर्णन करते  हुए  रामचरित मानस में महात्मा तुलसीदास जी लिखते हैं -

          "बंदउँ गुरु पद पदुम परागा।  सुरुचि सुबास सरस अनुरागा। 
           अमिय मूरमय चूरन चारू।  समन सकल भव रुज परिवारू।"

भावार्थ :"मै उन गुरुदेव के चरण की वंदना करता हूँ , जो सुन्दर स्वादिष्ट तथा अनुराग रुपी रस से पूर्ण है।  वह अमृत बूटी का चूर्ण है , जिससे संसार रुपी रोगों के परिवार का नाश हो जाता है।"

              "श्रीगुरु पद नख मणिगन जोती । सुमिरत दिव्य दृष्टि हियँ होती। 
               दलन मोह तम सो सुप्रकाशू। बड़े भाग्य उर आवइ जासू।"

भावार्थ :"श्री गुरुदेव के चरणों की नख-ज्योति मणि-समूह के प्रकाश के समान है। उनके स्मरण करते ही ह्रदय में दिव्य दृष्टि हो जाती है।  वह मोह रूपी  अन्धकार को दूर कर सुन्दर प्रकाश करने वाली है। वह बड़ा ही भागयशाली है जिसके ह्रदय में वह प्रकाश आता है।" गुरु को ब्रह्मा, विष्णु महेश और साक्षात परब्रह्म स्वरुप माना  गया है -

          "गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः,
           गुरुः साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः "

अर्थात गुरुदेव ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव स्वरूप हैं, साक्षात परब्रह्म स्वरुप हैं। उन्हें  बारम्बार  नमस्कार है |

मनुष्य का कर्तव्य है क़ि वह सदैव सच्चे ह्रदय से गुरु   का आदर  करे। इस   सम्बन्ध में भारतीय ऋषि परंपरा के महान  पुरुष आचार्य चाणक्य का एक श्लोक है -
     
                   एकाक्षरप्रदातारं यो गुरुं नाभिवन्दति .
                      श्वानयोनिशतं भुक्त्वा चाण्डालेष्वभिजायते  

भावार्थ है कि एक अक्षर का ज्ञान देने वाला गुरु भी सम्मानीय है।  जो व्यक्ति उसका आदर  नहीं करता, वह सौ बार जन्म लेने के बाद भी नीच योनि  ही  प्राप्त करता है। 
गुरु शिष्य परम्परा (गुरु-शिष्य सम्बन्ध) भारतीय संस्कृति का एक अहम और पवित्र  हिस्सा है। यह पवित्रतता सदा बनी रहे, इसी  मनोकामना के साथ  आज "शिक्षक दिवस" के  शुभ अवसर  पर आप सब को  हार्दिक बधाई।".
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वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणां ।
यदोर्वन्शं नरः श्रुत्त्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते।i
यत्र-अवतीर्णो भग्वान् परमात्मा नराकृतिः।
यदोसह्त्रोजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुताः।।
(श्रीमदभागवद्महापुराण)


अर्थ:

यदु वंश परम पवित्र वंश है. यह मनुष्य के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है. इस वंश में स्वयम भगवान परब्रह्म ने मनुष्य के रूप में अवतार लिया था जिन्हें श्रीकृष्ण कहते है. जो मनुष्य यदुवंश का श्रवण करेगा वह समस्त पापों से मुक्त हो जाएगा.